Dil e murda

दिल ए मुर्दा दिल नहीं है, इसे जिंदा कर दोबारा,
जिंदगी जीने के लिए बहादुरी है एक चारा।

जब मआरके में उतर चुका हो तो क्या परवादारी,
क्या फर्क पड़ता है, कोन जीता कोन हारा।

मुकद्दर में हो अज़ीम बनना किसी के तब,
फिर कहां इश्क व मुश्क, कहां शब ए बहारा।

तन्हाई में जो याद करते है मुझको उसका क्या सबब,
ऐसे तन्हाई से बचने का ढूंढ लो कोई सहारा।

उसको लगता है, बिना उसके शाम नही ढलती मेरी,
'खालिद' बिना किसीके थोड़ी ना बन जाएगा बेचारा।

-सैफुल्लाह खान 'खालिद'

Comments

Popular Posts